Saturday, October 6, 2012

आलमगीरी गंज बरेली- मेरा मोहल्ला


 आलमगीरी गंज बरेली- मेरा मोहल्ला

मेरा मोहल्ला -पीपल का पेड़
भोलेनाथ का मंदिर, मोईनुद्दीन की डेरी
दीपू की दुकान, क्रिकेट का सामान
टिंकू का वीसीआर, पायल की साइकिल

होली पर मचाते थे जम कर हुड्दंग  
त्योहारों का मतलब था अपनों का संग
सर्दियों में जलाते थे लक्कड़
गर्मियों में घूमते थे जैसे फक्कड़
कंपनी गार्डेन की सैर बरेली कॉलेज का मैच

मिलते हुए  किसी से घड़ी नहीं देखते थे
जेब कितनी छोटी है कितनी बड़ी नहीं देखते थे

जो कुछ कहता था कोई उसकी बात रख लेते थे
लोग आदमी के मुंह का मान रख लेते थे

मिलते थे लोग बिना किसी agenda
इधर से गुज़र रहे थे सोचा पियें चाय ठंडा

वर्ल्ड कप मास्टर साब की छत पर देखते थे
West Indies वाले मैच रात को ही होते थे

नीलू नोट बुक पर reynold's के पेन से
50 पैसा रन और 2 रुपया wicket रखते थे

दर्जी की दुकान पर जब सब नाप देते थे
दिवाली आने वाली है बच्चे भांप लेते थे

नब्बे साल की कमला नानी
मूंग की दाल के लड्डू  बना कर

चमन बाग़ से पैदल  चल कर
मेरे घर पर आती थीं

सुबह सवेरे नाना मेरे भजन का राग लगाते थे
गाँव से जब दादी आती थी हम पर मस्ती छाती थी

फिर-----

वक़्त बदला और हम भी बदल गए
शहर बड़े और घर छोटे हो गए

दिल मिले ना मिले लोग गले लगा लेते हैं
जैसी ज़रुरत हो वैसे चेहरे बना लेते हैं

हम फिर रोज़ी रोटी के फेर में खो गए ...

दादा-दादी, नानी- नाना की फ़ोन पर बस खबर आई
लफ्ज़ थम गए और आँख भर आई

जब वापस मोहल्ले में गया तो करें खड़ी थीं
पीपल का पेड़ trim  हो गया था

घर की दह्लीज़ें बड़ी और playground slim हो गया था
बरेली में भी अब बच्चे बस playstation खेलते हैं

अपने मोहल्ले को हम बस यादों में देखते हैं

हमारा भी घर फिर colony में गया
कुछ  ही मील के फासले पर युग बदल गया
                                                        - संदीप शर्मा

" महानता का business "


आओ मेरे साथ एक business  डाल लो " महानता का business "
तुम मुझे बेवकूफ़ बनाना और मैं चुप रहूँगा
जब तक मैं चुप रहूँगा-महान रहूँगा
मैं तुमसे कोई उम्मीद नहीं लगाऊँगा
और हाँ एक बात और जो महान नहीं है वो कुत्ता है
ज़ाहिर है कि मैं क्यूँ खुद को कुत्ता कहलाऊं
इसलिए भौंकने का मन करने पर भी चुप रह जाता हूँ
मुझे भी मालूम है कि महान और कुत्ते के बीच
इंसान भी होता है जिसकी अपनी मजबूरियाँ
कमजोरियां लाचारियाँ और सीमाएं होती हैं
लेकिन ये सब सिर्फ   तुम पर लागू हैं
मैं तो महान हूँ और महानता भगवान् का गुण है
मैं दरअसल एक गाय हूँ और गाय भगवान् का रूप है
और भगवान् सिर्फ देने के लिए बने हैं
इसलिए जितना हो सके उतना मुझे निचोड़ो
और बिना समय गँवाए मेरे दूध को भगवान् के प्रसाद का नाम दे दो
यहाँ तक कि मेरे बच्चे  के लिए भी दूध ना बचे
उसकी चीख सुन कर जब मैं सींग हिलाऊं तो तुम मुझे मारना
और फिर जाकर भगवान् से माफ़ी मांग लेना
लेकिन एक मिनट-अब तक तो भगवान् मैं था
लेकिन तुम्हें भगवान् बदलने में कितनी देर लगती है
महानता  का business फल फूल रहा है
ज़रा संभल कर - कहीं कोई आपको भगवान् ना बना दे

-संदीप शर्मा

अंदर world


ये रौशनी तुम्हें दिखाने कि क़वायद में
बहुत कुछ राख हो गया मेरे अंदर
मुस्कुराहटों के ख़रीदार तुमको अंदाज़ा ही नहीं
क्या कुछ बिक गया मेरे अंदर
तुम भी कमाल हो मुझसे रास्ता पूछने वाले
कभी रहा करते थे तुम मेरे अंदर
इस पत्थर कि नक्काशी के क़द्रदान तुम क्या जानो
कोई चीज़ धड़का करती थी कभी इसके अंदर
इस चलती हुई परछाईं को गौर से देखो
कभी इंसान हुआ करता था इसके अंदर

समंदर


मुझे ग़लत ठहराना आसान है
क्यूंकि मैं तुम नहीं हूँ
सही सिर्फ़ तुम हो सकते हो
तुम्हारे हालात के हिसाब से
मजबूर भी सिर्फ़ तुम हो सकते हो
मैं सिर्फ़ मैं हो सकता हूँ
और मैं सिर्फ़ ग़लत हो सकता हूँ
जहां ज़रुरत हो मुझे टुकड़ों में
सही ठहरा देना
जब दिल करे मुझे चलता करना
जब जी चाहे ठहरा लेना
तुम सिर्फ़ मेरी सतह पर
कुछ हलचल कर सकते हो
मेरी गहराई का तुम्हें अंदाजा ही नहीं
मंथन करते तो शायद अमृत भी मिल जाता
जो मैं करता हूँ वो समझ नहीं पाओगे
तुम लहरों के शोर से मुझे आँकोगे
जितनी तुम्हारी हैसियत है उतनी मेरी कीमत लगाओगे
तुम ये समझ ही नहीं पाओगे
कि समंदर बिक नहीं सकता
                                                                   संदीप शर्मा

आवारगी


आवारगी जहां भी ले जाती है
वहां लोगों को सिर्फ़ जोड़ती है
ये लोगों को बांधती है
पर उम्मीदें नहीं बंधने देती
टूटते लोग नहीं हैं
टूटती हैं उम्मीदें
उम्मीदें वहीं होती हैं, जहां बंधन होता है
लेकिन सवाल ये है- कि बंधना कौन चाहता है
लोग बंध जाते हैं -अपनी ही उम्मीदों के मकड़जाल में
मकड़ियां उड़ नहीं सकतीं
वो सिर्फ़ अपने जाल में शिकार फंसने का इंतज़ार करती हैं
जो जाल दूसरों के लिए बनाया उसमें ख़ुद फँसी रह जाती हैं
उड़ते हैं पंछी-
सपनों के पर लगा कर अपनी सीमाओं के परे
आवारगी ये खुशफ़हमी तो दे ही देती है
कि तुम्हारा हक़ सिर्फ़ ज़मीन पर ही नहीं है
शायद तुम कुछ तारे बटोर सकते हो
चाँद तुम्हारी ज़द में है
सूरज की कुछ चमक के तुम भी हिस्सेदार हो
नीला समंदर नापा जा सकता है
लेकिन -
हो सकता है कि ये सब ना भी हो
लेकिन एक छोटेपन की हक़ीक़त जीने से
एक सुनहरे ख्वाब में मर जाना कहीं अच्छा है
संदीप शर्मा

रेल


वक़्त के जैसी रेल चली 
और राह गुज़रती पन्नों सी 

कुछ इन्द्रधनुष पर धुल सी है
और गाढ़ी स्याही यादों की 

कुच्छ मौसम जैसे साथी हैं 
जो साथ तो हैं पर साथ नहीं

तुम जाने किस पन्ने पर हो
कहाँ गुलाब था याद नहीं 

संदीप 

रेत का आशियाँ


जो थमा हुआ था जम गया
जो बढ़ चला वो खून था
जो रुक गयी वो सांस थी
जो रह गया वो हौसला

जो ओढ़ ली सो शर्म थी 
उघड़ गया सो कफ़्न था 
जो चल रही थी लाश थी
जो दफ़्न थी वो ज़िन्दगी 

फ़िज़ूल था जो मिल गया 
जो खो गया सो इश्क़ था
जो बना के गुमाँ हो गया
वो आशियाँ था रेत का   

संदीप